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कृषि थपांडा: क्या है यह प्राचीन लेकिन प्रासंगिक खेती की पद्धति?

भारतीय खेती की बात हो और 'थपांडा' का ज़िक्र न हो, यह शायद अधूरा होगा। आधुनिक कृषि के दौर में जहाँ हम हाइब्रिड बीज, केमिकल खाद और सिंचाई के नए-नए तरीकों की चर्चा करते हैं, वहीं थपांडा एक ऐसी पारंपरिक पद्धति है जो हमें हमारी जड़ों की याद दिलाती है। यह कोई नया आविष्कार नहीं, बल्कि हमारे पूर्वजों का वह अनमोल ज्ञान है जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है।

तो आखिर है क्या यह 'कृषि थपांडा'? सरल शब्दों में कहें तो, थपांडा पहाड़ी ढलानों पर पत्थरों की सहायता से बनाई गई सीढ़ीनुमा खेतों की एक श्रृंखला है। इसे 'स्टोन-वॉल्ड टेरेस फार्मिंग' भी कहा जाता है। यह सिर्फ खेत बनाने का तरीका भर नहीं है, बल्कि पहाड़ों के सीमित संसाधनों के साथ सामंजस्य बिठाकर चलने की एक सोच है।

थपांडा क्यों? पहाड़ी खेती की चुनौतियाँ और एक समझदार समाधान

पहाड़ों पर खेती करना आसान नहीं। मैदानी इलाकों के मुकाबले यहाँ कई अलग चुनौतियाँ हैं:

  1. मिट्टी का कटाव: ढलान वाली जमीन पर बारिश का पानी तेजी से बहता है और अपने साथ उपजाऊ मिट्टी की ऊपरी परत बहा ले जाता है।

  2. पानी का प्रबंधन: पानी ढलान पर टिकता नहीं, सीधा नीचे बह जाता है, जिससे फसलों को पर्याप्त नमी नहीं मिल पाती।

  3. समतल जमीन की कमी: खड़ी ढलानों पर सीधे खेती करना लगभग नामुमकिन है।

इन्हीं समस्याओं का बेहतरीन इंजीनियरिंग समाधान है - थपांडा

कैसे बनता है एक थपांडा? एक कलात्मक निर्माण

थपांडा बनाना एक कला है जिसमें स्थानीय ज्ञान और मेहनत का संगम होता है।

  • पत्थरों का चयन: सबसे पहले खेत के आसपास के इलाके से चपटे और मजबूत पत्थरों को इकट्ठा किया जाता है।

  • दीवार की नींव: ढलान पर एक सीधी रेखा में एक मजबूत आधार तैयार किया जाता है। इस आधार पर पत्थरों को बिना सीमेंट या गारे के, बस एक-दूसरे पर कुशलता से जमाया जाता है। यह इंटरलॉकिंग डिजाइन ही दीवार की मजबूती का राज है।

  • मिट्टी भरना: पत्थर की दीवार बन जाने के बाद, उसके पीछे की ओर उपजाऊ मिट्टी भरी जाती है। यह मिट्टी अक्सर जैविक खाद (गोबर, कंपोस्ट) से समृद्ध की जाती है।

  • सीढ़ियों का निर्माण: इसी प्रक्रिया को ऊपर की ओर दोहराकर कई सीढ़ियाँ बना दी जाती हैं। हर थपांडा ऊपर वाले थपांडे के लिए एक आधार का काम करता है।

सिर्फ खेत नहीं, एक पूरी Ecosystem: थपांडा के फायदे

थपांडा की खूबसूरती इसके बहुआयामी लाभों में है।

  1. मिट्टी का संरक्षण: पत्थर की दीवारें बारिश के पानी के वेग को रोकती हैं, जिससे मिट्टी का कटाव रुकता है। यह पहाड़ की उपजाऊ ताकत को सैकड़ों सालों तक बचाए रखता है।

  2. प्राकृतिक जल प्रबंधन: थपांडा प्राकृतिक रूप से पानी को सोखने और रोकने का काम करता है। बारिश का पानी एक थपांडे से रिस-रिस कर अगले थपांडे में जाता है, जिससे नमी लंबे समय तक बनी रहती है और जमीन के पानी का स्तर (वाटर टेबल) भी रीचार्ज होता है।

  3. सूक्ष्म जलवायु निर्माण: पत्थर की दीवारें दिन में गर्मी सोखती हैं और रात में छोड़ती हैं, जिससे आसपास का तापमान संतुलित रहता है। इससे फसलों के लिए एक अनुकूल माहौल बनता है।

  4. जैव-विविधता का केंद्र: पत्थरों के बीच के छिद्र छोटे-छोटे जीवों, कीड़ों-मकोड़ों और पौधों के लिए एक सुरक्षित ठिकाना बन जाते हैं, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र स्वस्थ रहता है।

  5. स्थायित्व: बिना सीमेंट के बनी ये दीवारें सैकड़ों साल तक टिकी रह सकती हैं और लगातार उपज देती रह सकती हैं। यह टिकाऊ खेती का एक बेहतरीन उदाहरण है।

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केस स्टडी: उत्तराखंड के थपांडा

उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों, खासकर कुमाऊँ क्षेत्र में, थपांडा खेती की एक लंबी और समृद्ध परंपरा रही है। यहाँ के किसानों ने सदियों से इस पद्धति से धान, गेहूँ, मंडुवा (रागी) और दालों की खेती की है। स्थानीय किसान बताते हैं कि थपांडा में उगाई गई फसलों का स्वाद और पोषण स्तर आम खेतों से बेहतर होता है।

हालाँकि, बदलते समय के साथ, पलायन, मजदूरों की कमी और आधुनिक तरीकों की ओर रुझान के कारण थपांडा का चलन कुछ कम हुआ है। लेकिन अब एक बार फिर जलवायु परिवर्तन और टिकाऊ खेती के महत्व को समझते हुए, कृषि विशेषज्ञ और पर्यावरणविद् इस प्राचीन पद्धति को पुनर्जीवित करने 

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