द फैमिली मैन: सुपरहीरो नहीं, एक 'होना' है
वह सुबह का वक्त है। अलार्म बजने से पहले ही आँख खुल जाती है। पहला कदम चुपचाप, इस डर से कि कहीं बच्चों की नींद न टूट जाए। फिर शुरू होता है एक सिम्फनी— दूध गरम करना, टिफिन बॉक्स में परोसने लायक नाश्ता ढूँढना, स्कूल यूनिफॉर्म का बटन लगाना, और बीच-बीच में ऑफिस के ईमेल चेक करते रहना। यह कोई सुपरहीरो की कहानी का आरंभ नहीं है। यह है आज के 'फैमिली मैन' का एक साधारण दिन।
"फैमिली मैन" शब्द सुनते ही पुरानी फिल्मों का एक चित्र दिमाग में उभरता है— एक गंभीर, कम बोलने वाला पिता, जिसकी भूमिका सिर्फ पैसा कमाना और अनुशासन बनाए रखना है। लेकिन समय बदला है, और इस शब्द की परिभाषा भी बदल गई है। आज का फैमिली मैन सिर्फ एक 'करना' (कमाना, अनुशासन करना) नहीं, बल्कि एक 'होना' (साथ देना, समझना, जुड़ना) है।
बदलाव की बयार: पिता से 'पापा' तक का सफर
इस बदलाव के पीछे कई सामाजिक और आर्थिक कारण हैं:
दोहरी आय का दबाव: अब ज्यादातर परिवारों में पति और पत्नी दोनों काम करते हैं। इसने घर के काम और बच्चों की जिम्मेदारी को साझा करना एक जरूरत बना दिया है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में पिछले एक दशक में वर्किंग वुमन की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, और इसने स्वाभाविक रूप से पुरुषों की घरेलू भूमिका को बदला है।
भावनात्मक बुद्धिमत्ता (Emotional Intelligence) का उदय: आज समझा जाता है कि एक सफल परिवार चलाने के लिए सिर्फ पैसा काफी नहीं, भावनात्मक सहयोग भी जरूरी है। आज का फैमिली मैन बच्चे के डर सुनता है, पत्नी के सपनों को समझता है, और बुजुर्ग माता-पिता की चिंताओं में साथ देता है।
स्वयं की अपेक्षाएं: नई पीढ़ी के पुरुष अपने पिता से एक अलग तरह का रिश्ता चाहते हैं। वे सिर्फ डर के पात्र नहीं, बल्कि अपने बच्चों के दोस्त और विश्वासपात्र बनना चाहते हैं।
एक दिन की डायरी: द फैमिली मैन का पर्दाफाश
आइए, एक नजर डालते हैं आज के फैमिली मैन की मल्टीटास्किंग स्किल्स पर:
सुबह का योद्धा: वह अब सिर्फ अखबार पढ़ने वाला व्यक्ति नहीं है। वह ब्रेड को टोस्ट करने, दूध के गिलास भरने और स्कूल बस का इंतजार करने वाला व्यक्ति है।
ऑफिस का प्रोफेशनल: दिनभर वह ऑफिस की जिम्मेदारियाँ निभाता है, लेकिन उसका फोन परिवार के लिए हमेशा खुला रहता है— बच्चे का होमवर्क का सवाल हो या घर का कोई जरूरी फैसला।
शाम का सहयोगी: ऑफिस से लौटते ही वह अपनी टाई उतारकर एप्रन नहीं, लेकिन जिम्मेदारी का वह भाग जरूर संभाल लेता है। बच्चों को पढ़ाना, उनके साथ खेलना, या फिर रात के खाने की मेज लगाने में हाथ बंटाना— सब कुछ उसके दायरे में आता है।
रात का संवाददाता: यह वह वक्त है जब वह अपने पार्टनर से दिनभर की बातें साझा करता है, परिवार के भविष्य की योजनाएँ बनाता है और बच्चों को सुलाने से पहले एक कहानी सुनाने का वादा निभाता है।
चुनौतियाँ भी हैं बड़ी
यह रास्ता गुलाबों से भरा नहीं है। आज के फैमिली मैन के सामने कई चुनौतियाँ हैं:
वर्क-लाइफ बैलेंस: ऑफिस की डेडलाइन और बच्चे का स्कूल प्रोग्राम एक साथ manage करना किसी सँकरे रस्सी पर चलने से कम नहीं है।
सामाजिक दबाव: आज भी कई बार उसे "पुरुष होकर रसोई में?" जैसे ताने सुनने को मिल जाते हैं। पारंपरिक सोच अब भी उसके ऊपर 'मुख्य कमाऊ' का दबाव डालती है।
भावनात्मक थकान: लगातार दो-दो भूमिकाएँ निभाते-निभाते कभी-कभी वह खुद के लिए वक्त नहीं निकाल पाता, जिससे तनाव और थकान होना स्वाभाविक है।
यही तो है असली सफलता
आखिरकार, फैमिली मैन होने का मतलब क्या है?
यह प्रमोशन की रेस नहीं, बल्कि एक मैराथन है। इसकी सफलता ऑफिस के प्रमोशन लेटर में नहीं, बल्कि बच्चे की मुस्कुराहट में, जीवनसाथी के विश्वास में और एक सुरक्षित, खुशहाल घर के माहौल में छिपी होती है।
आज का फैमिली मैन सही मायनों में एक 'आधुनिक नायक' है। वह नायक इसलिए नहीं कि वह दुनिया बदल दे, बल्कि इसलिए कि वह अपने छोटे-से दुनिया को संभालते हुए मजबूती, कोमलता और प्रेम का एक अनूठा संतुलन बनाता है। उसकी सबसे बड़ी जीत यह नहीं है कि उसने कितना कमाया, बल्कि यह है कि उसने बच्चे के जीवन के महत्वपूर्ण पलों में उसके साथ रहकर, एक ऐसी विरासत बनाई जो पैसे से कहीं बड़ी है— विश्वास, सम्मान और असीम प्यार की विरासत।
वह सुपरहीरो नहीं है, क्योंकि सुपरहीरो तो केवल फिल्मों में होते हैं। वह तो बस एक पति, एक पिता, एक बेटा है... जो अपनी हर भूमिका को पूरे दिल से जीता है। और शायद, यही तो सबसे बड़ी बात है।


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